Description
इस दर्शन के प्रवर्तक महर्षि व्यास हैं। इस दर्शन में चार अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय में चार-चार पाद हैं। सूत्रों की संख्या 555 है। इस दर्शन का उद्देश्य वेद के परम् तात्पर्य परमात्मा को बतलाने में है। ब्रह्म के साक्षात्कार से ही स्थिर शांति और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
इस दर्शन को उत्तर मीमांसा भी कहते है। जैसे पूर्व मीमांसा यज्ञ के दार्शनिक पक्ष पर प्रकाश डालता है वैसे ही उत्तर मीमांसा ईश्वर की दार्शनिकता पर प्रकाश डालती है। इस दर्शन में ब्रह्म के स्वरूप का विवेचन किया है।
इस दर्शन में ब्रह्म, जीव और प्रकृति इन तीनों के स्वरूप और इनका परस्पर सम्बन्ध आदि विषयों का विवेचन है।
इस दर्शन का मुख्यः ध्येय ईश्वर को जानकर, परमानन्द को प्राप्त करना है।
प्रस्तुत भाष्य आचार्य उदयवीर शास्त्री द्वारा रचित है। वेदान्त दर्शन पर आचार्य शंकर, रामानुज, मध्व और वल्लभाचार्य आदि के द्वारा की हुई व्याख्याएँ प्राप्त होती हैं किन्तु ये अनेक स्थानों पर परस्पर भिन्न-भिन्न हैं। एक ही ब्रह्मसूत्र पर प्राप्त भिन्न-भिन्न व्याख्याओं से स्पष्ट है कि वे सब ब्रह्मसूत्र के मन्तव्यों का निरूपण नहीं करती है, अपितु व्याख्याकारों के अपने-अपने दृष्टिकोण को प्रकट करती हैं। इन भिन्न-भिन्न व्याख्याकारों के कारण अद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत, द्वैत आदि अनेक सम्प्रदायों की स्थापना हुई। इस भाष्य में इसी मत का उपादान किया है। किन्तु मध्यकालीन आचार्यों की भाँति उन्होंने अपना मत सूत्रों पर बलात् आरोपित नहीं किया है, उन्होंने उसे तत्तत् सूत्र से स्वभावतः निःसृत दिखाने का प्रयास किया है। इस भाष्य में प्रत्येक पद का आर्यभाषानुवाद तत्पश्चात् विस्तृत व्याख्या की गई है। इस भाष्य के अध्ययन से वेदान्तदर्शन ही नहीं, प्रसंगोपात्त सभी दर्शनों, उपनिषदों और गीता आदि आर्ष ग्रन्थों में परस्पर सामन्जस्य स्थापित हो जाता है।
यह भाष्य आध्यात्मिक ज्ञान और उपनिषदों के अध्येताओं के लिए अत्यन्त लाभकारी है। उपनिषदों के अध्ययन के पश्चात् इस दर्शन का अवश्य ही अध्ययन करना चाहिए। अतः आशा है कि आप सब स्वाध्यायी जन इस भाष्य का अवश्य अध्ययन करेंगे।
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